बरखा बैरन नहीं है साहब!

साहब ये अखबार में बारिश को आफत क्यों लिखा है? हम तो कब से बरखा की बाट जोह रहे थे!

बात तो सोचने की है! शहर के बाबू लोग ख़ुद के फैलाए कचरे को नजरंदाज करके बरखा रानी को अपने कष्टों का कारण कहते हैं बहुत ही बुरा लगता है! तकलीफों के असली जिम्मेदार और गुनहगारों को गरियाने के बजाए जब कुछ सलोनी सूरतें बारिश को कोसती हैं तो मारे गुस्से से माथा ऐसा गर्म होता है कि दिमाग के सब तंतु झनझना उठते हैं! कौन नहीं जानता कि नगर नियोजन किसकी हवस और बेईमानियों की बदौलत बिगड़ा है! गाँवों में अधोसंरचना विकास के प्रति साहबों की बेरुखी से भी कोई नावाकिफ तो नहीं है!

फिर बरखा काहे बैरन? बरखा बैरन नहीं है साहब!

सावन-भादौ जो जम के न बरसे और आगे वैशाख-ज्येष्ठ में जब जन-जन जल को तरसेगा तब बरखा को कोसने वाले इन्हीं अक्लमंदों में से कुछ हमारे फिक्रमंद बन कर; वातानुकूलित सेमिनारों में बोतलबंद पानी गटकते हुए जल संरक्षण पर नसीहत करते फिरेंगे!

बरखा रानी की खूबसूरती को निहारने में मगन माणुस, ‘रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून’ को नजरंदाज कर बहुत बड़ी गलती कर बैठा है। वो ‘मोती’ और ‘चून’ की सात्विक संपदा का सत्व तो बहुत पहले खो चुका था, अब स्वयं को उबार पाने के संकट से भी जूझ रहा है! जोहड़, तालाब, कुआँ, बावड़ी जैसे वर्षा जल को सहेजने के सदियों पुराने उपायों को नजरंदाज कर, साल दर साल बढ़ती गर्मी और घटती वर्षा को उपर वाले इंद्र का कोप कह कर कोसने से अब काम नहीं चलने वाला है! वो तो वैसे भी देवशयनी एकादशी पर देवता के साथ सोने गए!

अपने कष्टों के लिए प्रकृति के कोप को उत्तरदायी निरुपित करने से पूर्व उसके कुपित होने का कारण जानना आवश्यक होगा। असीमित भोग की हवस के चश्मे को तनिक सा आँखों से हटा अपने भीतर झाँकेंगे तो साफ साफ दिखाई दे जाएगा कि क्षुद्र निजि स्वार्थों के लिए व्यवस्था को तहस-नहस कर कितने संकटों को हमने स्वयं ही आमंत्रित किया है! दरिंदगी की हद तक पृथ्वी के पर्यावरण को क्षति पहुँचाकर हमने ऋतु चक्र को ही बेपटरी कर डाला है! अब भी होश में न आए तो…अफसाना तक न बचेगा अफसानों में!

धरा पर धरे लघु-विशाल सभी समर्थ अधिकारीगण और लोकतंत्र के छोटे-बड़े मंदिरों में विराजित/ पूजित नृपेंद्रों में से सार्थक सरोकारों से राब्ता रखने वाले बचे-खुचे साहबों, सरकारों, हुज़ूर, होकम से हाथ जोड़कर अरज है कि नदियों के बलात्कारियों, वनों के विनाशकों और धरती-पहाड़ों के कबरबिज्जूओं के नंगे नाच को आप ही बंद करवा कर श्रेय ले लीजिए वरना; बदलाव को तत्पर तरूणाई और जागे जन गण के सतत् समवेत प्रयासों से, इस पर परदा गिरना तो लाजिमी है ही!

जुलाई 2022

पुनश्च:

श्री केदारनाथ धाम में, दस वर्ष पूर्व घटित भीषण त्रासदी की चेतावनी से सीख लेकर, प्रकृति के अंधाधुंध दोहन करने संबंधी हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार में पर्याप्त सुधार न कर पाने का ही कदाचित यह दुष्परिणाम है कि पहाड़ों पर आज पुनः त्राहि त्राहि मची हुई है!

धरती के आँचल में पीन पयोधर, सामान्य मानवों की क्षुधापूर्ति हेतु पर्याप्त हैं परन्तु लोलुप लम्पट लफंगों और दबंग दैत्यों की पाशविक पिपासा का शमन करने में धराधर भी असमर्थ हैं!
द्वापर में देवकी की आठवीं संतान को मारने के उद्देश्य से कंस द्वारा भेजी राक्षसी का दुग्धपान करते-करते उसके प्राण खींच कर, नन्द के लल्ला ने पूतना को मुक्ति ही प्रदान की थी परन्तु कलयुग के ये ‘पूतने पिशाच’ धरती की छाती विदीर्ण कर, प्रकृति के अनमोल उपहारों का भरपूर आहार ग्रहण करने के उपरान्त भी बरजते नहीं हैं! इनके कुकृत्यों का दण्ड, हम सभी को भुगतना पड़ेगा; क्योंकि हम किसी को रोकते टोकते भी तो नहीं हैं! आज जब दिल्ली जलमग्न हो गई है तो न्यूज़ चैनल्स पर यकायक रुदालियों की चहल-पहल बढ़ गई है! बाकी समय तो…
“तुम मुझे भर्तृहरि कहो
तुम्हें कालिदास कहूंगा!”

14 जुलाई 2023

Pic & Video Credit – As Applicable

“बरखा बैरन नहीं है साहब!” को एक उत्तर

  1. नरेंद्र अजमेरा अवतार
    नरेंद्र अजमेरा

    जब मानव ने अपनी सुख-सुविधाओ के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है,जंगल,पहाड़,झरने,नदी-नालो आदि के स्वरूप को बदलने का प्रयास किया है तभी तो प्रकृति ने अपना रौद्र रूप जैसे भूस्खलन,भुक्कम्प,नदी-नालो मे बाढ़,जंगलों मे आग और मौसमों मे बदलाव आदि विभिन्न प्राकृतिक आपदाओ में बढ़ोतरी हो रही है।इनसे बचने के लिए मानव को ही प्रकृति के साथ दुर्व्यवहार करने से बचना होगा,तभी प्रकृति और मानव सुरक्षित रह पाएंगे।यह मेरे अपने व्यक्तिगत विचार है,किसी पर भी आक्षेप नही लगा रहा हूँ।यदि किसी को बुरा लगा हो तो करबध्द क्षमाप्रार्थी हूँ।जय-भारत।जय-हिन्द।

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